Site icon

‘एक राष्ट्र, एक संस्कृति, एक जन’ के भाव से भारत  की मूल परंपरा परिभाषित कर रहा पूर्वोत्तर

IMG-20251120-WA0127.jpg
क्रमशः मेघालय और अरुणाचल प्रदेश

भारत के पूर्वोत्तर हिस्से और शेष भारत के मध्य विविधता, भाषा,रहन-सहन इत्यादि को आधार बनाकर एक अलगाव उत्पन्न करने के कुप्रयास को विफल कर उनमें आत्मीयता, एकता और समन्वय स्थापित करने के उद्देश्य से अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद द्वारा 1966 में “अंतर – राज्य छात्र जीवन दर्शन”  जैसे एक दूर दृष्टि अभियान की शुरुआत की गई।
इस वर्ष इस अभियान का हिस्सा बनने का अवसर मुझे भी प्राप्त हुआ जिसके लिए मैं अपने आप को गौरवशाली समझता हूं एवं संगठन के प्रति अपना हृदयवत धन्यवाद ज्ञापित करता हूं।
पहले दिन गुवाहाटी में हुए ओरिएंटेशन प्रोग्राम के बाद शेष भारत के सभी राज्यों से आए प्रतिनिधियों को अलग-अलग समूह में बांट दिया गया।
हमारा भी आठ लोगों का एक ग्रुप बना जिसका नाम मणिपुर के एक फॉरेस्ट रिजर्व के नाम पर ‘लांगोल’ रखा गया। जिसमें 7 राज्यों से आए प्रतिनिधि समूह का हिस्सा बने।
इस यात्रा में मुझे पूर्वोत्तर भारत के दो राज्यों में जाने का अवसर मिला जहां हमने हमारे जनजाति समुदाय के लोगों के बीच उनका रहन-सहन, पहनावा, खानपान, उनकी परंपरा, रीति रिवाज, इत्यादि को जाना, समझा और करीब से अनुभव किया।
जिन दो राज्यों में हमें जाने का अवसर मिला उसमें से एक बादलों के शहर के नाम विख्यात मेघालय तथा दूसरा जहां की भूमि पर सबसे पहले सूर्य की किरण पड़ती है – अरुणाचल प्रदेश रहा।
मेघालय में हमने देखा कि आज आधुनिकता के युग में भी हमारे जनजाति समुदाय के लोग अपनी प्रकृति और संस्कृति के मूल से जुड़े हुए हैं तथा उसको आगे बढ़ाने के लिए सजग हैं।
संगठन के स्थानीय कार्यकर्ताओं  ने हमारी खातिरदारी करते हुए अपनी समृद्ध परंपरा का परिचय दिया। हमने देखा कि कैसे वे हमारी पसंद- नापसंद को लेकर चिंतित रहते थे। कभी अगर हमारी इच्छा अनुसार शाकाहारी भोजन नहीं मिल पाता था तो वे स्वयं रसोई में उतर कर हमारे लिए शाकाहारी भोजन अपने हाथों से तैयार करते थे।
प्रकृति के प्रति उनकी जागरूकता को मेरे एक छोटे से अनुभव से समझा जा सकता है कि एक बार मैं उछलते-कूदते एक पेड़ को हाथ से धक्का दे बैठा तभी वहां एक स्थानीय कार्यकर्ता जिससे अब मेरी मित्रता सी हो गई थी मेरे पास आया और निवेदित स्वर में बोला- “रात में पेड़ को मत मारो  वे सोते हैं, उठ जाएंगे, उन्हें दुःख होगा।” प्रकृति के प्रति उसकी संवेदना और भोलापन देखकर मैं चुप रह गया, पेड़ को सहलाया और कहा- “मुझे माफ कर देना।” वह छोटी-सी घटना मुझे प्रकृति तथा पेड़ों के प्रति संवेदनशीलता की अनुभूति करा गई।
मेघालय भारत का वो राज्य है जहां मातृसत्तात्मक समाज की व्यवस्था दिखाई देती है। परिवार-वंश, संपत्ति तथा उपनाम मातृरेखा के अनुसार चलती है—संपत्ति पर लड़की का अधिकार, गोत्र/वंश का स्थानांतरण बेटी के द्वारा और घर की विरासत बेटी के नाम पर होती है। पारंपरिक तौर पर परिवार की छोटी लड़की का विशेष स्थान होता है; कुछ जनजाति समुदाय में शादी के बाद दूल्हा दुल्हन के वहां जाकर बसता है; और पारंपरिक प्रथाओं में दहेज-प्रथा का स्वरूप भी अलग तरह का दिखाई पड़ा, दुल्हन को सम्मान स्वरूप उपहार दिए जाते है।  एक जनजाति समुदाय मे ‘नोकमा’ जैसी व्यवस्था भी देखने को मिली। यह व्यवस्था महिलाओं को सामाजिक रूप शसक्त करती है और समाज में संतुलन बनती हैं।

अरुणाचल प्रदेश में मिली आत्मीयता को शब्दों में जाहिर करना कठिन होगा फिर भी एक अनुभव है जिससे यह समझा जा सकता है कि अतिथि को कैसे अपनाना है यह हमें हमारे अरुणाचल के जनजाति समुदाय से सीखना चाहिए ।
अरुणाचल प्रदेश के ईटानगर में अपनी यात्रा के दौरान एक परिवार में मुझे रुकने का अवसर मिला। उस  परिवार के मुखिया ने बात ही बात में मुझसे कहा कि, “जब तक तुम अरुणाचल में हो, हम तुम्हारे अभिभावक हैं; तुम हमारे बेटे हो और अगर उस बीच तुम्हारे ऊपर  कोई भी संकट आएगा तो तुम्हें बचाने के लिए हम अपनी जान लगा देंगे हमारे यहां अतिथि के प्रति ऐसी परंपरा है।” यह शब्द मुझे हृदय से भावुक  कर रहे थे।
इस दौरान वहां के मुख्यमंत्री पेमा खांडू जी से भी अनुभव कथन एवं संवाद का अवसर हमें प्रात हुआ जिसमें अरुणाचल प्रदेश कि भौगोलिक स्थिति, विविधता, रंग बिरंगापन, कला एवं साहित्य सम्पन्नता, 26 से अधिक प्रमुख जनजाति समूह, 100 से अधिक उप जनजातियां और  इतनी विविधताओं के बाद भी सभी में परिवार भाव, आत्मनिर्भरता इत्यादि विषयों पर जानकारी प्राप्त हुई तथा सार्थक चर्चा संपन्न हुई।
अरुणाचल प्रदेश में हमने देखा कि  हमारे जनजाति समुदाय के लोग प्रकृति से प्रेम करते हुए आत्मनिर्भरता को अपनाकर  देश के सामने एक प्रतिमान कैसे स्थापित कर रहे हैं।
अरुणाचल प्रदेश में हमने प्रकृति, संस्कृति और आजीविका का अद्भुत संगम एवं समन्वय देखा जो प्रदेश को एक सस्टेनेबल आत्मनिर्भर प्रदेश बनाता है। हमने बंबू इंडस्ट्री, ईको-एग्रो टूरिज्म, ऑर्गेनिक फार्मिंग, टी इंडस्ट्री, पहाड़ों पर खेती मछली पालन जैसे अनेक आत्मनिर्भरता के स्त्रोत देखें।
अंत में इन दोनों राज्यों में हमने अपनापन प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता, आजीविका के लिए प्रकृति और अपनी संस्कृति के साथ समन्वय जिससे आत्मनिर्भरता को बढ़ावा मिलता है, अपनी भारतीय मूल परंपरा का संवर्धन, अपने स्थानीय भाषाओं के प्रति जागरूकता, अतिथि को देवता की तरह आदर सत्कार करना ऐसा भाव, अपनी भूमि के प्रति संवेदनशीलता और देश के प्रति देशभक्ति का भाव, महिला सशक्तिकरण का उदाहरण ऐसा अनुभव हमें प्राप्त हुआ।
वास्तव में विविधता में एकता का प्रत्यक्ष उदाहरण देखना है तो हमें पूर्वोत्तर भारत को देखना चाहिए ।
तमाम विविधताओं के बाद भी ‘एक राष्ट्र, एक परंपरा एक जन’ को  परिभाषित करता हुआ पूर्वोत्तर भारत निश्चित रूप से दुनिया का सबसे सुंदर और रंग-बिरंगा क्षेत्र है। यह हम सभी के लिए गर्व का विषय है कि हम उस देश के नागरिक हैं जिसमें इतनी विविधताएं हैं और इतनी विविधताओं के बाद भी सभी नागरिक राष्ट्रीयता के सूत्र में एक दूसरे से आत्मिक रूप से जुड़े हुए हैं।

~ सात्विक श्रीवास्तव, उत्तर प्रदेश
(SEIL Deligate, 2025)

Exit mobile version